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Monday, July 11, 2011

गिरा कर आंख से अपनी, घर से कर दिया बेघर ,

मुझे रुख़सार पर रखते, तुम्हीं में जज़्ब हो जाता ।
-राजेश चड्ढ़ा

Friday, July 08, 2011

रचना-बहुत कुछ होना है/राजेश चड्ढ़ा


रचा जाता है

बहुत कुछ-

कला और

भाव-पक्ष की,

सीमाओं के बाहर भी,

भाव-पूर्ण।



रचा जाता है

बहुत कुछ-

सार्थक ध्वनि समूह

के बिना भी,

मर्मस्पर्शी।



रचा जाता है

बहुत कुछ-

शब्दार्थ योजना

के बगैर भी,

प्रवाहशील।



रचना-

बहुत कुछ

होना है।

Thursday, July 07, 2011

क्या खूब आदमी था-'ज़ौक़'


न हुआ पर न हुआ 'मीर' का अन्दाज़ नसीब,
'ज़ौक़' यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

 -‘ज़ौक़’ का जन्म 1789 ई. में हुआ। उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता अध्भुत थी। अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे।

-इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। कुरान की व्याख्या में वे पारंगत थे, विशेषतः सूफी-दर्शन में उनका अध्ययन बहुत गहरा था। रमल और ज्योतिष में भी उन्हें अच्छा-खासा दख़ल था और उनकी भविष्यवाणियां अक्सर सही निकलती थीं। स्वप्न-फल बिल्कुल सही बताते थे। कुछ दिनों संगीत का भी अभ्यास किया था और कुछ यूनानी चिकित्सा-शास्त्र भी सीखा था। धार्मिक तर्कशास्त्र और गणित में भी वे पारंगत थे।

-उनके बहुमुखी अध्ययन का पता अक्सर उनके क़सीदों से चलता है, जिनमें वे विभिन्न विद्याओं के पारिभाषिक शब्दों के इतने हवाले देते हैं कि कोई विद्वान ही उनका आनंद लेने में समर्थ हो सकता है। उर्दू कवियों में इस कोटि के विद्वान कम ही हुए हैं। किन्तु उनकी पूरी प्रतिभा काव्य-क्षेत्र ही में दिखाई देती थी।

-उनकी स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र थी। जितनी विद्याएं और उर्दू फ़ारसी की जितनी कविता-पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं, उन्हें वे अपने मस्तिष्क में इस प्रकार सुरक्षित रखे हुए थे कि हवाला देने के लिए पुस्तकों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, अपनी स्मरण-शक्ति के बल पर हवाले देते चले जाते थे।

-ज़ौक़ का ये बेमिसाल शे’र-

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले

-ज़ौक़ की एक ग़ज़ल के कुछ शे’र देखें-

जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया

-ज़ौक़ का एक-एक शे’र जैसे फ़लसफ़ा हो-

[१]
लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
[२]
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे


इस कमाल के उस्ताद ने 1854 ई. में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया।मरने के तीन घंटे पहले यह शे’र कहा था:-

कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत [मोक्ष]करे
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