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Tuesday, October 26, 2010

कविता / यूं ही जिया / राजेश चड्ढ़ा

यूं ही जिया....

अभिनय-
अगर
कभी किया ,
तो ऐसे किया
जैसे- जीवन हो |
और
जीवन-
जब भी जिया ,
तो ऐसे जिया
जैसे-
अभिनय हो ।
जो-
सहज लगा ,
वही-
सत्य लगा ,
और-
जो सत्य लगा
उसे-
स्वीकार किया |
कभी-
अभिनय में ,
कभी-
जीवन में |

Tuesday, October 19, 2010

यहां लिख जाओ / राजेश चड्ढ़ा



....यहां लिख जाओ....


तुम.....

इस वक़्त भी......

मौजूद हो.......

...सोच के...!

काग़ज़ पर...!

लफ़्ज़ों की शक्ल में.....!

ये तो हद है...!

कभी.......

बिना सोचे भी.....

कुछ कर जाओ....

या फिर...यूं कह लो....

बहुत जिया....!

अब किसी पर...

मर जाओ....!

सूरज भर

छिपते फिरे हो...

अब चांद भर

दिख जाओ...

कुछ भी

ना कह पाओ....

तो...आओ.....

यहां लिख जाओ........

Wednesday, October 13, 2010

आसान कहां होता है/ राजेश चड्ढा

यूं लगा
जैसे
तुम्हारी मौहब्बत
तेज़ बारिश की तरह
बहुत देर तक
मुझ पर
बरसती रही
और जुदाई में
तुम्हारी-मेरी
या
थोड़ी तुम्हारी-थोड़ी मेरी
बेवफ़ाई की हवा ने
उसे
हम पर से
यूं खत्म कर दिया
जैसे
बरसात के बाद
पेड़ों के पत्तों पर ठहरी
पानी की बूंदें
उसी बरसाती हवा की वजह से
कतरा-कतरा
छिटक कर
ज़मीन की मिट्टी में
यूं समा जाएं
कि बरसात के
निशान तक न रहें
लेकिन
मैं !
ये भी तय नहीं कर पाया
कि
गुनाहगार
मैं हूं  !
या
तुम  !
सच है...
मौहब्बत
जब हद से बढ़ कर हो
तो इल्ज़ाम देना
आसान कहां होता है ?

Thursday, October 07, 2010

मत मांग गरीब रात से/ राजेश चड्ढा

मत मांग गरीब रात से, तू गोरे चांद सी रोटी ,
तोड़ देगी भूख़ तेरी, ये लोहारी हाथ सी रोटी ।

नहीं करेगा कोई तमन्ना, पूरी ख़ाली पेट की,
अरे नहीं मिलेगी तुझे कभी, सौग़ात सी रोटी।

सोचता है मिलेगी, औरत जैसी कठपुतली सी,
अरे ! पीस देगी बेदर्द ये मर्द ज़ात सी रोटी ।

तेरा जीवन कब तेरा है, मरना तेरा अपना है,
बात-बात में सब देंगे, बस कोरी बात सी रोटी

हवा ओढ़ ले ढ़ांचे पर, सो जा ये मिट्टी तेरी है,
शायद नींद में ही मिल जाए, ख़्वाब सी रोटी ।

Sunday, October 03, 2010

बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है / राजेश चड्ढा




बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं
है पौध नाम फ़सल में, धरने लगी है ग़रीबी तूं ।

पेट के आईनें में शक़्ल कुचलती है कई दफ़ा
परछाई पर भी ज़ुल्म , करने लगी है गरीबी तूं ।

चांद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चांदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।

प्यास लगे तो आंसू हैं, ये दरिया तेरा ज़रिया है
अपने पेट की आग़ में, जलने लगी है गरीबी तूं ।

ख़ामोश है और ख़ौफ़ से सहमी हुई सी लगती है
शायद तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगी है ग़रीबी तूं
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