- ख़ामोशियों का ख़ौफ़ है, डरने लगा हूं मैं,
यूं तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगा हूं मैं ।
रात के आग़ोश में, चुभने लगा है चांद ,
चांदनी से रफ़्ता-रफ़्ता, जलने लगा हूं मैं ।
ठंडी-सफ़ेद-जमी हुई, बर्फ़ की मानिंद ,
क़तरा-क़तरा देखो, पिघलने लगा हूं मैं ।
सन्नाटों का ये तूफ़ां, ज़िंदग़ी से जाए ,
ये बेआवाज़ इल्तेजाह, करने लगा हूं मैं ।
ये तीसरा पहर है, बस शाम होने वाली है,
वो देखो दूर मग़रिब में, ढ़लने लगा हूं मैं ।
मैं हूं ! अकबर इलाहबादी
-
हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
-16 नवम्बर सन 1846 को जन्मे अकबर इलाहाबादी रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग क...
7 years ago
10 टिप्पणियाँ:
khamoshion ki na puch kaise baatain karti hain,,,,
jab dur ho sanam to kaise raatain
dasti hain ,,,,,,,,
Chaadni ki sheetalta se kaise aag
lagti hai,,,,,,,,,,
dil ki ye baatain hain inhain dil pe he chorh do ,,,,,,,
khamoshion ki baate khamoshi se sun bhi lo.........!!!!!!
Rajesh bahut he behtreen hai ye ,,,,,dil main utar gaiee.....!!!!!
अमृत जी समय देने का धन्यवाद
रात के आग़ोश में, चुभने लगा है चांद ,
चांदनी से रफ़्ता-रफ़्ता, जलने लगा हूं मैं ।
ठंडी-सफ़ेद-जमी हुई, बर्फ़ की मानिंद ,
क़तरा-क़तरा देखो, पिघलने लगा हूं मैं ।
वाह! गज़ब की अदायगी…………सुन्दर भाव संयोजन।
wo dekho dur magreeb mein dhalne lga hun main...kya baat hai.ye suraj to abhi udit hi hua hai.aage aage dekhiye kya hota hai...yun hi likhte rahiye.
वंदना जी......हैरी.....यहां पर पधारने का शुक्रिया
राजेश जी,
बहुत खुबसूरत ग़ज़ल सारे शेर एक से बढकर एक हैं.....आपकी रचना पर नकरात्मक से सकरात्मक की और एक शेर बन पड़ा है मुलाहजा फरमाइए -
"सारी कायनात अब खूबसूरत नज़र आती है,
हर शै में तुझको अब देखने लगा हूँ मैं"
इमरान जी बहुत सुंदर...ये अलग रंग है....शुक्रिया.
rajesh ji aap ke blog par aakar achha laga -- bhupender mudgal surat garh
आपका स्वागत है भूपेन्द्र जी....
Assa vaang musafir tur jaana,
teri mehfil sada abaad rahe,
kade do-chaar hanju dol lavi,
jekar tenu saadi yaad rahe! BHUPENDER KATALA CHUNAWADH
Post a Comment