मैं
ठंडी-सफ़ेद और जमी हुई
सुबह हूं
एक खुदगर्ज़ सुबह
उस उदास-डूबती और पिघलती हुई
शाम से
मेरा
कोई ताल्लुक नहीं
वो स्याह-गूंगी और सरकती हुई रात
कौन है ?
मैं उसे नहीं जानती
मेरी आंखें सहरखेज़[सुबह उठने की अभ्यस्त]हैं
और
ये ज़मीं
उजालों की सेज है
मैनें
ये बेलौस[निस्वार्थ] नतीजा निकाला है
कि मुझे शाम ने
अपनी लाल-पीली रौशनी के
...तले सम्भाला है
और
रात ने मुझे
अपने आंचल से
निकाला है
लेकिन
मैं
सुबह हूं
एक
खुदगर्ज़ सुबह
मैं हूं ! अकबर इलाहबादी
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हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
-16 नवम्बर सन 1846 को जन्मे अकबर इलाहाबादी रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग क...
7 years ago
9 टिप्पणियाँ:
वाह....राजेश साहब ......बहुत ही खुबसूरत......कुछ अलग सा पढने को मिला....खुदगर्ज़ सुबह....वाह.......बेहतरीन नज़्म है........आपको और आपके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें|
नयी सोच...नए शब्द...नया अंदाज़...फैन हो गए हम तो आपके...वाह.अद्भुत रचना.
नीरज
बहुत खूबसूरत अंदाज़ .
क्या खूब नज़ारा पेश किया है…………बहुत खूब्।
wah rajesh ji...
khoobsurat bimb saheje h...
khoob...
इमरान अंसारी जी नीरज गोस्वामी जी संगीता स्वरुप जी वन्दना जी चैन सिंह शेखावत जी....आप सभी का आभार...
सशक्त कविता है, पहले भी पढ़ी है और भी कई बार पढने का सुख है इसमें...
na jane kyu baar baar padhne ko man karta h.khudgarj subah yun hi yaad aa jati hai kabhi kabhi...
hamne u hi jindgi gujar di rato k andhere aur din k ujale me
aaj malum huaa ki din aur raat k alava bhi kuchh
h .........
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