बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं
है पौध नाम फ़सल में, धरने लगी है ग़रीबी तूं ।पेट के आईनें में शक़्ल कुचलती है कई दफ़ा
परछाई पर भी ज़ुल्म , करने लगी है गरीबी तूं ।
चांद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चांदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।
प्यास लगे तो आंसू हैं, ये दरिया तेरा ज़रिया है
अपने पेट की आग़ में, जलने लगी है गरीबी तूं ।
ख़ामोश है और ख़ौफ़ से सहमी हुई सी लगती है
शायद तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगी है ग़रीबी तूं
18 टिप्पणियाँ:
vah GURU !!!!!!!!!!!!!AAPKE LEKHAN ME AMIRI JHALAKTI . ..BADHAI.......
चांद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चांदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।
बहुत सुन्दर ...गज़ल ...एक गरीब के दर्द को बयाँ करती हुई
वाह खूबसूरत ग़ज़ल कही है. पोएट्री के सामाजिक सरोकार उसे अधिक सुंदर बनाते हैं. पुनः शुभकामनाएं.
राजेश जी,
शानदार ग़ज़ल हर शेर बेहतरीन ........दाद कबूल फरमाएं |
kya baat hai.chand ko roti samjhane ka khyal laajawab.
Mastan singh bhai
संगीता स्वरुप ( गीत )जी
Kishore Choudhary bhai
harish harry ji........
आप सभी का शुक्रिया..आपने समय दिया.
इमरान जी धन्यवाद
परछाई पर भी ज़ुल्म , करने लगी है गरीबी तूं ।
चांद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चांदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।
बहुत ही भावमय प्रस्तुति ।
http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/19-297.html
यहाँ भी आयें .
बहुत सटीक अभिव्यक्ति.
वाह जी, बहुत उम्दा रचना..आनन्द आ गया.
गरीब की व्यथा रोटी को चाँद समझ ही लेती है ...
संवेदनशील कविता ..!
जिस तरह अमावस कि रात चाँद को निगल जाती है उसी तरह गरीबी जिंदगी को . अच्छी कही . और एक सोच ही नहीं दर्द भी उभर गया .
आप सभी का आभार
भूख और गरीबी के दर्द को बयान करती एक बहतरीन गज़ल .....मेरा अभिवादन स्वीकार करे
स्वागत है अन्नू जी
great!!!!! really ur words make an image before eyes. your way of representations and to understand the world and then put into words is awesome. its fine to be such personality very near to heart.
JK Soni, LBSNAA, Mussoorie
www.jksoniprayas.blogspot.com
जितेन्द्र.....व्यस्त समय में से भी समय निकाल कर पढ़ने का शुक्रिया
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