"वो चार जिन्हां दा इश्क़,
तिन्हां नूं कत्तण केहा,
अलवेली किऊं कत्ते ।
लग्गा इश्क़ चुकी मसलाहत,
बिसरीयां पंजे सत्ते ।
घाइलु माइलु फिरै दिवानी,
चरखे तंद ना घत्ते ।
मेरी ते माही दी परीती चरोकी,
जां सिरि आहे ना छत्ते ।
कहे हुसैन फ़क़ीर निमाणा,
नैण साईं मत्ते ।"
ये काफ़ी सूफ़ी 'शाह हुसैन' की है........
रूहानी इश्क़ और समर्पण क्या होता है...?
इस बात को जानने के लिए, ना जाने और कितना वक्त लगेगा हमें....!
जब कि 15वीं-16वीं शत्ताब्दी में ही शाह हुसैन ने कह दिया था......
"जिन्हें इश्क़ हो जाता है, फिर उन्हें चरखे पर सूत कातने यानि 'जपने' की ज़रूरत नहीं रह जाती,
क्योंकि इश्क़ में सब विलीन हो जाता है।
इसीलिए कहते हैं इश्क़ में डूबे...बेपरवाह...दीवाने को कुछ अतिरिक्त करने की ज़रूरत नहीं है।
मौहब्बत हो जाने पर अक़्ल और मज़हब सब छूट जाता है...भूल जाता है।
इश्क़ की मदहोशी में खोये हुए, अपने से भी लापरवाह होने पर, किसी काम को मन नहीं होता।
चरखे की एक भी तान नहीं खींची जाती ।
शाह हुसैन कहते हैं... मेरे और मेरे प्रीतम की प्रीत बेहद पुरानी है ।
यह आज की नहीं।
मुझे किसी भी परेशानी या दुविधा की परवाह नहीं,
क्योंकि मेरे नयन मेरे सांई के इश्क़ में डूबे हुए हैं।"
एक और 'काफ़ी' में शाह हुसैन कहते हैं.......
चोरी आवैं चोरी जावैं,
दिल दा भेत ना देनी हैं।
छलड़ीआं दुइ पाइ पडोटे,
लाए बज़ार खलोनी हैं।
पल्ले खरच न कूने पाणी,
केड़ही मज़ल पुछेनीं हैं।
...........यहां वे कहना चाहते हैं......
"इस संसार में लोग चुप-चाप आते हैं और चुप-चाप चले जाते हैं।
उनके आने और जाने का मक़सद भी समझ में नहीं आता।
दो चार सूत के धागे टोकरी में डाल कर बाज़ार में खड़े होना
और अपने थोड़े-बहुत इल्म का दिखावा या नुमाइश करना आदत बन जाता है।
आख़िर होता ये है...कि हम सब के सामने अपनी अच्छाईयों का गुणगान स्वयं करने लग जाते हैं.."
..... नहीं लगता कि ये बच्चों को भी समझ में आ जाने वाली बात....हम नहीं समझ पाते.....?
क्या अब भी कुछ बाक़ी है.....?
तिन्हां नूं कत्तण केहा,
अलवेली किऊं कत्ते ।
लग्गा इश्क़ चुकी मसलाहत,
बिसरीयां पंजे सत्ते ।
घाइलु माइलु फिरै दिवानी,
चरखे तंद ना घत्ते ।
मेरी ते माही दी परीती चरोकी,
जां सिरि आहे ना छत्ते ।
कहे हुसैन फ़क़ीर निमाणा,
नैण साईं मत्ते ।"
ये काफ़ी सूफ़ी 'शाह हुसैन' की है........
रूहानी इश्क़ और समर्पण क्या होता है...?
इस बात को जानने के लिए, ना जाने और कितना वक्त लगेगा हमें....!
जब कि 15वीं-16वीं शत्ताब्दी में ही शाह हुसैन ने कह दिया था......
"जिन्हें इश्क़ हो जाता है, फिर उन्हें चरखे पर सूत कातने यानि 'जपने' की ज़रूरत नहीं रह जाती,
क्योंकि इश्क़ में सब विलीन हो जाता है।
इसीलिए कहते हैं इश्क़ में डूबे...बेपरवाह...दीवाने को कुछ अतिरिक्त करने की ज़रूरत नहीं है।
मौहब्बत हो जाने पर अक़्ल और मज़हब सब छूट जाता है...भूल जाता है।
इश्क़ की मदहोशी में खोये हुए, अपने से भी लापरवाह होने पर, किसी काम को मन नहीं होता।
चरखे की एक भी तान नहीं खींची जाती ।
शाह हुसैन कहते हैं... मेरे और मेरे प्रीतम की प्रीत बेहद पुरानी है ।
यह आज की नहीं।
मुझे किसी भी परेशानी या दुविधा की परवाह नहीं,
क्योंकि मेरे नयन मेरे सांई के इश्क़ में डूबे हुए हैं।"
एक और 'काफ़ी' में शाह हुसैन कहते हैं.......
चोरी आवैं चोरी जावैं,
दिल दा भेत ना देनी हैं।
छलड़ीआं दुइ पाइ पडोटे,
लाए बज़ार खलोनी हैं।
पल्ले खरच न कूने पाणी,
केड़ही मज़ल पुछेनीं हैं।
...........यहां वे कहना चाहते हैं......
"इस संसार में लोग चुप-चाप आते हैं और चुप-चाप चले जाते हैं।
उनके आने और जाने का मक़सद भी समझ में नहीं आता।
दो चार सूत के धागे टोकरी में डाल कर बाज़ार में खड़े होना
और अपने थोड़े-बहुत इल्म का दिखावा या नुमाइश करना आदत बन जाता है।
आख़िर होता ये है...कि हम सब के सामने अपनी अच्छाईयों का गुणगान स्वयं करने लग जाते हैं.."
..... नहीं लगता कि ये बच्चों को भी समझ में आ जाने वाली बात....हम नहीं समझ पाते.....?
क्या अब भी कुछ बाक़ी है.....?
7 टिप्पणियाँ:
राजेश जी,
बहुत ही खुबसूरत मुझे सूफी दर्शन से बहुत लगाव है .....पर क्या करूँ मुझे पंजाबी नहीं आती आपने इसका अनुवाद किया आपका आभार......मेरी गुज़ारिश है अगर आपको कभी फुर्सत मिले तो बुल्लेशाह की हीर का हिंदी में अपने अंदाज़ में अनुवाद कर सके तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी......शुभकामनायें|
शुक्रिया....इमरान जी
वाह राजेश जी...
सूफियाना ....सूफियाना ...
आपके व्यक्तित्व और कृतित्व ..
दोनों का अंदाज़ सूफियाना है....
बहुत सुंदर...
क्या अब भी कुछ बाकी है...?
शायद हाँ ,शायद नही....
खैर बहुत अच्छा तर्जुमा किया है एक अच्छे चयन के लिए शुक्रिया ......
चैन सिंह जी.....अंजू...शुक्रिया...मन का करता हूं ...पसंद करने का शुक्रिया...शेष क्या है....ये तो तब अहसास हो सकता है जब ...अंश ..भी व्यवहार में उतर जाए...बस उसी की ये कोशिश है....
राजेश जी को सादर वंदन
आपको पढ़कर सीखने का नाकाबिल प्रयाश हमेशा बना रहता है!
आपकी कविता, गज़ल बहतरीन.... अदभुत... लाजवाब
आपका अनुज...
धीरेन्द्र गुप्ता"धीर" ९४१४३३३१३०, ९७८५८५१०३२
शुक्रिया....धीरेन्द्र जी
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