भागते दिन को
बांह पकड़ कर
रोकते हुए,
उसके कुरते की सीवन,
जो तुम ने
उधेड़ डाली-
ये दिन-
अब-
दिन भर-
कहां-कहां-
किस-किस से-
छिपता फिरेगा !
ये जो सोच लिया होता ,
तो शायद
ये दिन भी-
अपना दिन
रोज़ाना की तरह
गुज़ार ही देता ।
अब-
अन्जाने में-
अपनेपन से हुए-
अपराध-बोध
से ग्रसित होना भी-
इस दिन से
रिश्ता बिगाड़ना
ही तो है !
सुनो !
शाम को थके-हारे
दिन और तुम-
जब लौटो-
तब करना
मनुहारें-
रात
मेहरबान हो कर-
दिन और तुम्हें-
समेट लेगी
अपने में ,
और फिर से
एक-मेक
हो जाओगे-
दिन और तुम ।
ये तो तय है-
सीवन उधड़ जाने से
रिश्ते नहीं उधड़ा करते ।
बांह पकड़ कर
रोकते हुए,
उसके कुरते की सीवन,
जो तुम ने
उधेड़ डाली-
ये दिन-
अब-
दिन भर-
कहां-कहां-
किस-किस से-
छिपता फिरेगा !
ये जो सोच लिया होता ,
तो शायद
ये दिन भी-
अपना दिन
रोज़ाना की तरह
गुज़ार ही देता ।
अब-
अन्जाने में-
अपनेपन से हुए-
अपराध-बोध
से ग्रसित होना भी-
इस दिन से
रिश्ता बिगाड़ना
ही तो है !
सुनो !
शाम को थके-हारे
दिन और तुम-
जब लौटो-
तब करना
मनुहारें-
रात
मेहरबान हो कर-
दिन और तुम्हें-
समेट लेगी
अपने में ,
और फिर से
एक-मेक
हो जाओगे-
दिन और तुम ।
ये तो तय है-
सीवन उधड़ जाने से
रिश्ते नहीं उधड़ा करते ।
8 टिप्पणियाँ:
सीवन उधड़ जाने से
रिश्ते नहीं उधड़ा करते ।
सच कहा…………एक अलग ही ख्याल मे ले गयी रचना…………सुन्दर अभिव्यक्ति।
वन्दना जी.....मेहरबानी
राजेश जी,
आपके ब्लॉग की अब तक की सबसे शानदार प्रस्तुति लगी मुझे ये......इस पोस्ट के लिए आपको हैट्स ऑफ.......बहुत ही सुन्दर और शब्द नहीं मिल प् रहें हैं मुझे ......आप ऐसे ही लिखते रहें....आमीन|
रात मेहरबान हो कर-
दिन और तुम्हें समेट लेगी
अपने में...
बहुत खूबसूरत !!
इमरान भाई.....किशोर जी.....धन्यवाद
ये दिन भी-
अपना दिन
रोज़ाना की तरह
गुज़ार ही देता ।
....पढ़ी तो पहले भी थी ये रचना ,पर आज जब पुन: देखा तो मन में कही गहरे उतर गई ,एक लम्बी ठंडी लहर के साथ किनारों को भिगो गई........
शाम को थके-हारे
दिन और तुम-
जब लौटो
तब करना
मनुहारें-....
काश...! हम भी ऐसा कर पाएं
bahut saandar.rajesh ji main aapke sheron ka murid hoon ,par we mil nahi rahe.kounse blog me hain?
इसी में है रमेश जी...थोड़ा पीछे जाएं.... चाहें तो कविताकोश के लिंक पर क्लिक कर लें.....मेहरबानी आपकी
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