डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
-16 नवम्बर सन 1846 को जन्मे अकबर इलाहाबादी
रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग के सख्त विरोधी थे। अकबर अलग हटकर सोचने-समझने वाले तथा
गहरी चोट कर तिलमलाहट पैदा करने वाले अव्वल दर्जे के शायर थे। ये अपनी शेरों-शायरी
में रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग पर तीखा व्यंग करते थे।
-जिस माहौल में उनका जन्म हुआ था, उससे
आमना-सामना किए बिना वे कैसे रह सकते थे। वे ज़माने में जो कुछ देख सुन रहे थे, उससे
अपने को अलग नहीं रख सकते थे। अंग्रेज़ों के जुल्म को वे कैसे अनदेखा कर सकते थे। अकबर
इलाहाबादी ने अपनी शायरी के फन का भरपूर इस्तेमाल किया और कलम से तलवार की तरह वार
किया। तभी अकबर ने कहा-
खींचों ना कमानो को, ना तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।
-आज़ादी के दौर का यह सच भी है कि जब
अंग्रेज़ सरकार की तोप आज़ादी के दीवानों के मुकाबले ख़डी थी, तब देश में छोटे-ब़डे
कई तरह के अखबार आज़ादी की ल़डाई के लिए आवाज़ बुलंद करने के लिए निकाले गए।
-अकबर इलाहाबादी अदालत में एक छोटे मुलाजिम
थे,बाद में इन्होने कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया, हाईकोर्ट में वकालत का इम्तिहान
दिया और सात साल तक इलाहाबाद, गोंडा, गोरखपुर, आगरा में वकालत की। वकालत में खूब नाम
कमाया और फिर सेशन जज बन गए। सरकार ने इन्हें खान बहादुर के पद से भी विभूषित किया।
-उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ
खूब लिखा। अकबर इलाहाबादी ब़डे विनोदी प्रकृति के थे। इसी लिए व्यंग्य विनोद में विदेशी
सरकार पर चुटीली फब्तियां कसने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। उन्होंने
शायरी का सहारा लेकर ब़डी बेबाकी से चुभती बात कहने में कभी चूक नहीं की।
-गांधी जी के नेतृत्त्व में छिड़े स्वाधीनता
आन्दोलन के भी अकबर गवाह रहे. साफगोई से अकबर इलाहाबादी अपनी बात कहने में माहिर थे।
न किसी का डर न कोई लालच। भीतर तक मार करने के फन के फनकार थे अकबर। बिना किसी डर के
इतनी ब़डी बात कहने वाले का हौसला देखिए-
मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो
जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस
वक़्त
यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो
-अकबर जैसे शायर के पास परिणामों की परवाह
किए बिना अपनी शायरी से चोट पर चोट करने का हुनर था। तभी उन्होंने कहा-
चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए
सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात
इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए
-महामना मदनमोहन मालवीय ने अकबर इलाहाबादी
के बारे में दिल से कहा था हम लोग लम्बे-लम्बे भाषणों में वह नहीं कह पाते जो इस एक
मिसरे में अकबर कह देते हैं।
-9 सितम्बर सन 1921 को हम से जुदा होने
वाले अकबर कहते हैं-
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में-राजेश चड्ढ़ा