ठोकर से जज़्बात मेरे, चट्टान हुए ।
मेहमां थे जो ज़ख़्म, वो मेज़बान हुए॥
टुकड़ा-टुकड़ा मौत, मेरे हिस्से आई ।
जर्जर हो कर ढ़हता सा, मकान हुए ॥
चमक हमारी यूं तो अब है, गुंबद पर ।
लेकिन धूप से लड़ने के, फ़रमान हुए॥
बुत बन कर जब बैठ गए, तो ख़ुदा हुए।
लफ़्ज़ ज़ुबां से निकले, तो इन्सान हुए ॥
वादा-शिकन ने हाल ही ऐसा, कर छोड़ा ।
हम नोची-खायी लाशों के, शमशान हुए ॥

ग़ज़ल बहुत सुंदर है
ReplyDeleteये शेर खास पसंद आया
बुत बन कर जब बैठ गए, तो ख़ुदा हुए।
लफ़्ज़ ज़ुबां से निकले, तो इन्सान हुए ॥
शुक्रिया किशोर जी.....
ReplyDeleteमुझे यही हक़ीक़त लगी....
jab bot bankar baith gaye to khuda huye....laajawab... zabarmast...
ReplyDeleteबुत बन कर जब बैठ गए, तो ख़ुदा हुए।
ReplyDeleteलफ़्ज़ ज़ुबां से निकले, तो इन्सान हुए ॥
bahut khoob...
Harish Harry....स्वाति जी..
ReplyDeleteशुक्रिया
राजेश जी,
ReplyDeleteवाह.....बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है...दाद कबूल करें ....
ये शेर बहुत पसंद आए-
टुकड़ा-टुकड़ा मौत, मेरे हिस्से आई ।
जर्जर हो कर ढ़हता सा, मकान हुए ॥
बुत बन कर जब बैठ गए, तो ख़ुदा हुए।
लफ़्ज़ ज़ुबां से निकले, तो इन्सान हुए ॥
इमरान भाई शुक्रिया
ReplyDeleteअच्छी है , ....क्या...?
ReplyDeleteग़ज़ल...पर उम्मीद इससे अलग, कुछ और उम्दा सी रचनाओं की करते है...
नये वर्ष में आपकी बहुत सी रचनाये पढने को मिलेंगी इसी कामना के साथ,
ढेर सारी शुभ कामनाए.......
अंजू जी.....आने का शुक्रिया....
ReplyDeleteपसंद किया मेहरबानी.....
आपने कहा है.....!
समयानुसार.. प्रयास करता हूं...
शुभकामनाएं...