मैं
ठंडी-सफ़ेद और जमी हुई
सुबह हूं
एक खुदगर्ज़ सुबह
उस उदास-डूबती और पिघलती हुई
शाम से
मेरा
कोई ताल्लुक नहीं
वो स्याह-गूंगी और सरकती हुई रात
कौन है ?
मैं उसे नहीं जानती
मेरी आंखें सहरखेज़[सुबह उठने की अभ्यस्त]हैं
और
ये ज़मीं
उजालों की सेज है
मैनें
ये बेलौस[निस्वार्थ] नतीजा निकाला है
कि मुझे शाम ने
अपनी लाल-पीली रौशनी के
...तले सम्भाला है
और
रात ने मुझे
अपने आंचल से
निकाला है
लेकिन
मैं
सुबह हूं
एक
खुदगर्ज़ सुबह

वाह....राजेश साहब ......बहुत ही खुबसूरत......कुछ अलग सा पढने को मिला....खुदगर्ज़ सुबह....वाह.......बेहतरीन नज़्म है........आपको और आपके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें|
ReplyDeleteनयी सोच...नए शब्द...नया अंदाज़...फैन हो गए हम तो आपके...वाह.अद्भुत रचना.
ReplyDeleteनीरज
बहुत खूबसूरत अंदाज़ .
ReplyDeleteक्या खूब नज़ारा पेश किया है…………बहुत खूब्।
ReplyDeletewah rajesh ji...
ReplyDeletekhoobsurat bimb saheje h...
khoob...
इमरान अंसारी जी नीरज गोस्वामी जी संगीता स्वरुप जी वन्दना जी चैन सिंह शेखावत जी....आप सभी का आभार...
ReplyDeleteसशक्त कविता है, पहले भी पढ़ी है और भी कई बार पढने का सुख है इसमें...
ReplyDeletena jane kyu baar baar padhne ko man karta h.khudgarj subah yun hi yaad aa jati hai kabhi kabhi...
ReplyDeletehamne u hi jindgi gujar di rato k andhere aur din k ujale me
ReplyDeleteaaj malum huaa ki din aur raat k alava bhi kuchh
h .........