भगवान बुद्ध के समकालीन लाओत्से का जन्म चीन के त्च्यु प्रदेश में ईसा पूर्व 605 में माना जाता है। वह एक सरकारी पुस्तकालय में लगभग 4 दशक तक ग्रन्थपाल रहे। कार्यनिवृत्त होने पर वह लिंगपो पर्वतों पर ध्यान चिन्तन करने निकल गये। जब 33 वर्षीय कन्फ्यूशियस ने लाओत्से से मुलाकात की थी तब वे 87 वर्ष के थे। कन्फ्यूशियस पर उनके दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा
अंतिम बिदाई की घड़ी में लाओत्से हिमालय की और एक रात चुप से चल दिये। देह त्यागने के लिए। उन्होंने शिष्यों से कहां की मृत्यु मेरे पास आये इससे पहले क्यों न उसके पास चला जाउं। वे चल दिये चीन की सीमा का छोड़ कर हिमालय की ओर। चीन के सम्राट को जब इस बात की खबर लगी। उसने कहलवा भेजा- जाने मत देना इस आदमी को मेरे देश कि सीमा के बहार जब तक कि मैं न आ जाऊं। लाओत्से को पकड़ लिया गया। सम्राट पहुँचा और उसने कहा- आपने 80-90 साल मेरे देश का अन्न जल ग्रहण किया है। अब यूं नहीं जा सकोगे मेरे देश को छोड़ कर। तुम्हें टैक्स अदा करना होगा। जो आपने जाना है, वह अब आपको लिखना होगा। जबरदस्ती लाओत्से को रोक लिया गया। तब लाओत्से ने एक छोटी सी किताब लिखी। पहला ही वाक्य यह लिखा-
"बड़ी भूल हुई जाती है। जो कहना है वह कहा नहीं जा सकता; और जो नहीं कहना है वह कहा जाएगा। सत्य बोला नहीं जा सकता। जो बोला जा सकता है। वह सत्य हो नहीं सकता। जो बोला जा सकता है। बड़ी भूल हुई जाती है। और मैं इसको जान कर लिखने बैठा हूं। इसलिए जो भी आगे पढ़ो, मेरी किताब में, इसे जान कर पढ़ना कि सत्य बोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा सकता, वह जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं है। इसे पहले समझ लेना फिर किताब पढ़ना।"
।इस तरह एक किताब का जन्म हुआ, जो लाओत्से ने दो दिन और रात बैठ कर लिखी-दुनियां की बहुत ही कीमती पुस्तकों में से एक- "ताओ-तेह-किंग" यानि "सम्राट का कर"।
"ताओ-तेह-किंग" में लाओत्से पूछते है -
"क्या फूल को अपने अंदर खुशबू भरनी या उसके लिए कोशिश करनी पड़ती है? वह सहज रूप में ही अपना जीवन बिताता है।
लोग कहते हैं कि वो सुगंध देता है लेकिन यह तो फूल का स्वभाव है, इसके लिए वह कर्ता नहीं।
लाओत्से कहते हैं यह ”गुण प्रकाश” का मार्ग है।
मनुष्य का सबसे बड़ा धन या साम्राज्य वासनाशून्य हो जाना है। इसके लिए श्रम की जरूरत ही कया है?
क्योंकि ‘कुछ करना चाहिए’ इस भावना को त्यागना है। कुछ होने की भावना से निवृत्ति ही सबसे बड़ा कर्म है।"
कुछ यही श्री राम के नदी पार करने पर केवट द्वारा शुल्क मांगने पर घटित हुआ था, जिसके बदले में श्री राम ने केवट को भव-सागर पार करने वाले वचन कहें।