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Sunday, February 20, 2011

ये मैं हूं / राजेश चड्ढ़ा

मेरे दोस्त-

ये मैं हूं ।

मेरे-

पैरों के नीचे

जैसे-ज़मीन नहीं

बर्फ़ रहती है ।

मुझ में भी

नदी बहती है ।

बर्फ़ की एक परत

उस पर भी

जमी रहती है ।

लेकिन-

इन सब के

बावजूद ,

मेरे और बर्फ़

के भीतर-

नमी रहती है ।

मेरे दोस्त-

ये मैं हूं ।

5 comments:

  1. गहन चितन से परिपूर्ण बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  3. straight to the heart.. mobile se comment kar raha hun isliye hindi mein nahi ho raha.. pl bear

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  4. इन सब के बावजूद /मेरे और बर्फ़ /के भीतर- / नमी रहती है .......
    यही नमी बर्फ़ को बर्फ़ और पेड़ को हरा रखती है....
    अच्छी कविता है

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  5. शुक्रिया......कैलाश जी....संगीता जी....मनोज भाई.....अंजु...आप सभी का धन्यवाद यहां विज़िट की इस हेतु..!

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